देशहित के खिलाफ है आज़ाद सोशल मीडिया? एक अति संवेदनशील व बहु आयामी दृष्टिकोण वाला मुद्दा एवं सवाल है| इसे ‘गहरे पानी पैठ’ कर विश्लेषण करने से ही यह परत दर परत खुले तो शायद इस प्रश्न के हल ढूंढने में कुछ आसानी हो|
यह सवाल उठा है तब जब मुजफ्फरनगर मे साम्प्रदायिक हिंसा इतनी फ़ैल गई कि पूरा देश जलता हुआ नज़र आने लगा| साथ ही यह तो बड़ी साधारण सी ही बात है कि केंद्र में बैठा शासन भी तभी जागता है जब स्थिति असामान्य हो जाती है तथा नियंत्रण के बाहर हो जाती है| भला हो हमारी सैन्य शक्ति का जो हर तरह से हाथ से निकल चुकी स्थितियों पर काबू पा लेती है व देश व समाज को एक आह भरकर, फिर से जीने के लिए प्रेरित करती है| वर्ना, देश के कर्णधार (कुछ अपवाद छोड़कर) चाहे शासन हो, चाहे प्रशासन हो या फिर मीडिया या सोशल मीडिया सभी ‘आग लगा तमाशा देख’ वाली कहावत को चरितार्थ करते नज़र आते हैं| यहाँ शासन और प्रशासन का नाम जोड़ना भी ज़रूरी है क्योंकि इस घटना के पीछे कहीं न कहीं शासन, प्रशासन व पोलिस की चूक भी रही है|
आइए अब इस घटना को क्रमवार तरीके से देखें कि कब क्या हुआ और क्यों हुआ|
अगस्त 27 को सोशल मीडिया पर एक विडियो अपलोड किया गया था जिसमें दो अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय के दो लड़कों को मौत के घाट उतार दिया गया था| क्यों? क्योंकि उस से पहले उन दोनों लड़कों ने एक अल्पसंख्यक समुदाय के लड़के को जान से मार दिया था| क्यों? क्योंकि उस एक लड़के ने उन दो लड़कों की बहन से छेड़खानी की थी|
अब आप कहेंगें कि ऐसी घटनाएँ तो तकरीबन हर रोज़ टी वी व अखबारों में देखने व सुनने को मिलती हैं| जी हाँ, आप सही हैं| फिर कोई एक घटना इतनी बड़ी कैसे बन गई कि पूरा देश जलता हुआ नज़र आने लगा?
सांप्रदायिक नफरत तब भड़की जब मुजफ्फरनगर के एक कथित शख्स शिवम् कुमार ने उस जघन्य कृत्य का विडियो अपलोड कर दिया और उस विडियो को तुरंत सरधना से बी जे पी के विधायक संगीत सोम ने शेयर कर दिया तथा जातिवाद टिपण्णी कर दी| देखते ही देखते यह विडियो दावानल की तरह फ़ैल गया व दो समुदायों के बीच हिंसक नफरत फैला गया| हालाकि, यू ट्यूब पर विडियो को ब्लॉक कर दिया गया पर अन्य साइटों पर नहीं रुक सका| एक ऐसा वीडियो जो दो ढाई साल पुराना किसी और घटना का था ।
इतनी घटना तो साफ दिखाती है कि सोशल मीडिया ही ज़िम्मेदार है|
अब आगे क्या हुआ?
दोनों समुदायों द्वारा अलग अलग पंचायतें हुईं| 31 अगस्त को बहुसंख्यक पंचायत हुई जिसमें भाजपा व भारतीय किसान यूनियन के नेता तथा हजारों लोग शामिल हुए| उस पंचायत में 7 सितम्बर को महापंचायत बुलाने का फैसला लिया गया| इसी बीच दूसरे पक्ष की भी पंचायत हुई जिसमें बसपा, समाजवादी व कांग्रेस के नेता शामिल हुए|
यहाँ स्पष्ट सी बात है कि भड़काऊ भाषणों से माहौल को ज़रूर इतनी गर्मी मिली कि दंगा फैलने में और बेकाबू होने में देर नहीं लगी| फिर शुरू हुआ आरोप-प्रत्यारोप का दौर| पक्ष व विपक्ष ने एक दूसरे पर आरोप लगा कर यह जताने की कोशिश की कि वे खुद जनता की नज़र में दूध के धुले हैं और दूसरा पक्ष ही इस का ज़िम्मेदार है|
वैसे तो अक्सर मैं यह कहा करती हूँ कि -ज़रूरी नहीं कि ताली दो हाथों से ही बजे| क्योंकि अगर एक हाथ आराम से पड़ा है और दूसरा हाथ ऊपर से आकर नीचे वाले हाथ को (या इस से उल्ट) आकर पीटे तो क्या ताली नहीं बजेगी?’
पर हर स्थिति एक जैसी नहीं होती| यह भारत में संभवतः पहली घटना होगी जब दो गुटों की नफरत को चिंगारी दी सोशल मीडिया ने और ईंधन पूर्ति की सियासत के लालची पक्ष व विपक्ष दोनों ने| इस हिंसा के भड़कने में एक और पक्ष भी कुछ हद तक ज़िम्मेदार है| इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया| उन्होंने अपनी कहानियों में जातिवाद शब्दों जैसे ‘मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं का कत्लेआम जारी’, ‘मुजफ्फरनगर में मुसलमानों का आतंक’ आदि का प्रयोग करके अग्नि में आहुति देने का काम किया|
यह उपरोक्त चर्चा इस फोरम में उठे मुख्य मुद्दे को गहराई से जांचने के लिए ज़रूरी है|
अब आते हैं इसी सवाल की जड़ें ढूँढने की कड़ी में| सत्ता पक्ष द्वारा यह कहना कि सोशल मीडिया ही ज़िम्मेदार है- कहाँ तक सही कहा जा सकता है?
अगर इस घटना से हटकर सोशल मीडिया को परखा जाये तो विज्ञान की हर तकनीक की तरह इसके बारे में भी कहा जा सकता है कि- अगर समझदारी से काम किया जाये तो वरदान नहीं तो अभिशाप है| लेकिन केवल अभिशाप मानकर उस से अछूते तो नहीं रह सके| उसी तरह से आज के युग में सोशल मीडिया को यदि नियंत्रित कर दिया जाये, पर, शायद यह संभव न हो| हाँ यह बात बिलकुल सही है कि इसी मीडिया की वजह से इसके उपभोगकर्ता अनगिनत नकली षड्यंत्रों का शिकार हो जाते हैं| विशेषकर महिलाओं की सुरक्षा| महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक टिपण्णी या फिर देश की अखंडता को नुक्सान पहुँचाने वाली जातिवाद पर नकारात्मक टिपण्णी आदि से देश की आन्तरिक शांति व बाह्य सुरक्षा पर खतरा हो सकता है|
अतः यह कहना कि सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की ज़रुरत है’- बिलकुल वैसा ही है जैसे कि अपनी घाती कमजोरियों तथा कमियों को छिपाने के बहाने ढूँढना| परन्तु, यदि यह कहा जाये कि आपत्तिजनक तस्वीरें, विडियो या सन्देश पर पाबन्दी लगाईं जाये तो अनुचित न होगा|
विभिन्न TV Channels व समाचार पत्रों के आधार पर| …उषा तनेजा ‘उत्सव’
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