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सामाजिक सोच -कितनी ज़िम्मेदार? Jagran junction Forum

मंथन- A Review
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सामाजिक सोच -कितनी ज़िम्मेदार? Jagran junction Forum

धार्मिक व अध्यात्मिक गुरु आसा राम आज सलाखों के पीछे हैं| दस पंद्रह दिनों से चल रहा तमाशा आज अपने आधे मुकाम तक पहुँच गया है|
यह घटना चिंतनशील लोगों के सामने अपने साथ अनगिनत सवाल ले कर खड़ी है| इस घटना से पहले भी कई प्रसिद्द बाबाओं पर यौनाचार प्रताड़ना के आरोप लगते रहे हैं| उनके कुछ अनुयायी तो यह सहन ही नहीं कर पाते कि जिन्हें वो भगवान मानते हैं, उन पर कोई ऊँगली उठाये| और, यह होना भी चाहिए| पर तभी, जब उन्हें इस बात पर विश्वास ही नहीं पूरा भरोसा भी हो कि उनका गुरु यह घृणित कार्य नहीं कर सकता| फिर कड़ी दर कड़ी जब यह साबित हो जाता है कि गुरु ही ज़िम्मेदार है तो उनका मन तो इस बात को स्वीकार कर लेता है लेकिन अपने समाज में वह उसी बात पर अड़ जाता है कि गुरु में उसकी श्रद्धा अटूट है| न केवल वह खुद अड़ जाता है बल्कि अपने धर्म भाईयों को भी जोड़े रखने में एड़ी चोटी का जोर लगा देता है|

सबसे पहले इस बात पर चर्चा कर ली जाये कि देश या समाज में इन गुरुओं का महत्तव क्या है?


अगर समग्र व समदृष्टि से देखा व परखा जाये तो एक बात निर्विवाद रूप से सामने आती है कि देश व समाज में असीमित अशांति फैली रहती है| उस अशांति में से एक बड़ा भाग इन धर्म गुरुओं ने नियंत्रित कर रखा है| वह अशांति इन गुरुओं की शरण में जाकर शांत हो जाती है| इसके अलावा वे समाज के उत्थान के लिए भी काफी कार्य करते रहते हैं जिससे कई ज़रूरतमंद व्यक्तियों को फायदा होता है| इसीलिए वे उसे भगवान का दर्जा दे देते हैं|

यहाँ सवाल सिर्फ ज़रूरतमंदों का ही नहीं अपितु उच्च शिक्षा प्राप्त व आर्थिक रूप से सुदृढ़ परिवार भी अपनी मानसिक शांति के लिए इन की शरण में जाते रहते हैं, क्योंकि शांति उच्च शिक्षा या धन से तो नहीं खरीदी जा सकती| वे यह सत्य जान ही नहीं पाते कि सच्ची शांति तो इंसान के भीतर छिपी रहती है| सिर्फ उसे पहचान कर उसे स्वीकार करना ज़रूरी होता है| एक बात और भी है कि जब लोग किसी बाबा की शरण में जाते हैं तो उन्हें दूसरे सभी लोग अपने जैसे ही दिखाई देते हैं इसलिए भी उन्हें वहां जाने से सुकून मिलता है|

अब एक नज़र दोनों पक्षों पर–

सबसे बड़ा भौतिक सच तो यह है कि आदमी के अन्दर एक जानवर भी रहता है| हर इंसान उस जानवर पर कितना नियंत्रण कर पाता है- यही बात तय करती है कि वह इंसान, इंसान है या इससे ऊपर भगवान या इससे नीचे हैवान| बाकि परिस्थितियां भी उसे इंसान से भगवान या हैवान बनाने में मदद करती हैं| तीसरे, उसके प्रति लोगों की नज़र भी एक कारण बनता है| इस तरह पूर्ण रूप से यह मान लेना कि कोई धार्मिक गुरु कभी कोई अनैतिक कार्य कर ही नहीं सकता, अपने आप को धोखा देने जैसा है| अपनी आत्मा को कुचलने जैसा है|
दूसरी तरफ, जो समाज है, जो किसी बाबा के अनुयायी बनते हैं, वे अपने गुरु पर विश्वास करें, अच्छी बात है, पर अंधविश्वास तो सर्वथा अनुचित है| ऐसे भक्त जो कई कई सालों से गुरु को पूजते आ रहें हैं, अगर वे भी अपने गुरु की बात मानकर अपनी बेटी को अकेले ही बाबा के कमरे में छोड़ देते हैं तो क्या वे कसूरवार नहीं हैं| मान लिया कि वे अपनी बेटी की बीमारी ठीक करवाना चाहते थे, उन्हें इस बात का भरोसा भी था कि बाबा के पास उस बीमारी का इलाज भी है इसलिए वे बाबा के झांसे में आ गए थे, पर, ऐसा कौन सा इलाज है जो अकेले कमरे में होता है? माता-पिता भी साथ नहीं रह सकते? अगर इतना एकांत ज़रूरी है भी तो cctv या पारदर्शी दीवार के पार तो दिखाई दे कि अन्दर क्या हो रहा है!
तीसरी बात यह कि कोई मानसिक रूप से अस्वस्थ लड़की, जैसा कि माता-पिता का कहना है (और उसी का इलाज बाबा कर रहे थे), जिसके माता-पिता स्वयं उसी बाबा के परम भक्त थे, किसी भगवान के खिलाफ आरोप क्यों लगा रही है?

चौथी बात, बाबा उस आरोप से बच क्यों रहे थे| अगर कोई व्यक्ति बेक़सूर हो और उस पर अनैतिकता का संगीन आरोप लगा दिया जाए तो वह एकदम से बिफर जाता है तथा तुरंत सामने आकर अपने आप को बेक़सूर साबित करना चाहता है| फिर इस केस में उल्टा क्यों रहा?

पांचवीं बात, पोलिस, मेडिकल जांच और न्यायपालिका को कितना झूठा समझा जा सकता है?

आदि…

आखिर इस बुराई के पीछे समाज खुद काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है| इसमें उस व्यक्ति का कसूर तो बाद में है जिसने भगवा चोला पहन कर पहले लोगों को भक्त बनाया फिर उनकी मजबूरी का फायदा उठाया| समाज के लोगों को ही यह सीखना चाहिए कि वे विश्वास तो करें पर अंधविश्वास नहीं|

…उषा ‘उत्सव’

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