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अकेले तुम + अकेले हम = आओ साथ चलें !

मंथन- A Review
मंथन- A Review
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अकेले तुम + अकेले हम = आओ  साथ  चलें !

बदलते सामाजिक परिवेश में संयुक्त परिवार एकल परिवार में तब्दील हुआ। अब स्थिति यह हो चुकी है कि एकल परिवार भी विघटन की ओर बढ़ रहा है। युवा हो चुके बच्चे उच्च शिक्षा के लिए दूर जाने लगे हैं। उच्च शिक्षा के सदुपयोग के लिए दूर जाने लगे हैं। पीछे माता-पिता अकेले रह जाते हैं। यहाँ तक तो सब ठीक है। दो हैं तो अकेले कैसे हो सकते हैं? दोनों मिल बैठते हैं। पकाते हैं। खाते हैं। घूमने निकल जाते हैं। समाचार देखते हैं। टी वी देखते हैं। हँसते हैं। बच्चों की याद आने पर रोते हैं। एक दूसरे को दिलासा देते हैं। रूठते हैं। मनाते हैं। लेख आदि पढ़कर चर्चा करते हैं। बहस करते हैं। … आदि।

पर!

पर तब क्या जब दोनों में से एक दूर चला जाता है? दूर। बहुत दूर! जहाँ से वापिस आना कभी नहीं हो सकता। एक अकेला। जिंदगी के इस मोड़ पर। बच्चे अपनी-अपनी जिंदगियों में मस्त। कभी-कभी मिलना होता है। किसी त्योहार आदि पर। बच्चे अपने बच्चों की बाते करते थकते नहीं। सब खुश। खुशियों के ठहाके लगते हैं।  उस शोरगुल में एक तन्हाई दब जाती है। बूढ़ी हो चुकी तन्हाई। जो अब शोला नहीं रही। जो अब धधकती नहीं। जिसकी तपन अब बच्चों के लिए गर्माहट नहीं रही। राख सी बन गई है। लेकिन जिंदगी अभी बाकी है। बच्चे तो केवल त्योहार मनाने आते हैं। राख बनी तन्हाई पर लोहड़ी जलाते हैं। होली मनाते हैं। दीये जलाते है। घर को रोशन करते हैं। कोना-कोना जगमगाता है। यहाँ तक कि गली के राह्गुजारों के लिए भी रोशनी का इंतजाम किया जाता है। पर, बूढ़ी हो चुकी तन्हाई किसी अँधेरे कोने में रोशनी की एक किरण की बाट जोह रही होती है। ऐसी रोशनी जिसमें वह अपनी बची जिंदगी का अक्स ढूंढ सके। एक ऐसा अक्स जिसके साथ मिलकर वह स्वयं (तन्हाई) को साहचर्य में बदल सके। जिसका हाथ थामकर वह मृतप्राय शेष जीवन में प्राण फूँक सके।

फिर मन में डर क्यों?

यह समाज? समाज से पहले अपने बच्चे? क्या वे सहमत होंगें? क्या वे हंसेंगें नहीं? मज़ाक नहीं बनायेंगें? क्या वे नए हमसफ़र को अपना पायेंगें? शायद नहीं! उन्हें तो अपनी आज़ादी चाहिए। अपनी खुशियाँ चाहिए। अपना परिवार चाहिए। वो तो अभी जवान हैं। बुड्ढों का क्या? वे तो जीवन काट चुके। वे अब तक की जिंदगी केवल बच्चों के लिए ही जिए तो इसमें बच्चों का दोष तो नहीं। अब भी वे अपने तन्हा बचे अभिभावक की देखभाल करने की पूरी कोशिश तो कर ही रहे हैं। अगर ईश्वर ने उनको अकेला कर दिया है तो इसमें बच्चों का क्या कसूर है? माता अकेली बची भी हैं तो वह मीरा बन कर, श्री कृष्ण को याद करके जिंदगी बिता लेगी। मगर पिता? पिता के लिए तो समस्त वेदों में, पुराणों में, ग्रंथों में कहीं भी कोई ऐसा देवता नहीं है जिसकी तरह वह किसी देवी को अपनी मानकर बाकी जीवन दिखावटी ख़ुशी के साथ व्यतीत कर सके। फिर क्या करें?

समस्या है तो समाधान भी है

सन 1856 में श्री ईश्वर चंद विद्यासागर के आंदोलनों के दबाव में अंग्रेजी सरकार ने विधवा विवाह को कानूनी मंज़ूरी दे दी थी। लेकिन समाज में कड़ा विरोध हुआ था। इस कानून के बहुत से समर्थकों ने स्वयं आगे आकर स्व-उदाहरण प्रस्तुत किये। धीरे-धीरे समाज ने इस प्रथा को अपना लिया। आज कई समझदार सास-ससुर अपनी विधवा बहु का पुनर्विवाह करवा कर सामाजिक दायित्व बखूबी निभा रहे है। लेकिन बूढ़ी तन्हाई क्या करे? क्या केवल यह कानून ही काफी है या कुछ और भी चाहिए?

हाँ, बिलकुल!

चाहिए। फिर भी बहुत कुछ चाहिए। सबसे पहले बच्चों की संवेदनशीलता। ऐसा हृदय जो अकेले रह गए माता या पिता का दर्द महसूस कर सके। ऐसा बर्ताव जो तरस खाया हुआ न हो। ऐसी ख़ुशी जो किसी की तन्हाई को सदा के लिए ख़ुशी में तब्दील करके खुश होती हो। ऐसा संकल्प जो समाज के सामने उदाहरण बन सके। ऐसा प्रेम जो अकेले माता या पिता का सर समाज-सुधार विरोधियों के सामने झुकने न दे। स्वयं का ऐसा निश्चय जो अपने उद्धार के साथ किसी दूसरे की ढलती उम्र में उसका हाथ भी थाम सके। एक ऐसा निर्णय जो बच्चों को स्वयं सुनाया जा सके। एक ऐसी चर्चा जो बच्चों के मन की दुविधा को दूर कर सके। एक ऐसा आत्मविश्वास जो साथी की भावनाओं के साथ तालमेल रख सके।

ताकि

न रहो तुम अकेले, अकेले रहें क्यों हम?
आओ आगे बढ़ें मिलाकर एक से कदम।।

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