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मेरी मजबूरी

मंथन- A Review
मंथन- A Review
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मेरी मजबूरी
व्यंग्य

आज की दुनिया बेतहाशा भागती जा रही है, दौड़ती ही जा रही है| कुछ आगे, कुछ पीछे, कुछ उनके पीछे…| पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अकड जाते हैं| वे स्वयम को जबरन रोक देते हैं उस राह पर जाने से जो राह पिट चुकी होती है| उनके अनुसार रुके पानी की तरह सड़ना ज़्यादा अच्छा है बजाये इसके कि दौड़ते लोगों के पीछे पीछे विवेक हीन होकर दौड़ते जाएँ| या फिर सर्वश्रेष्ठ कहलाने के एहसास का कीड़ा उनके पैरों को ही जाम कर देता है| उसके बाद जब वह देखता है कि सारी दुनिया तो जा चुकी, वह अकेला ही रह गया है तो उसे अफ़सोस होता है कि अकेला चना कैसे भाड़ फोड़ लेगा? सो, मजबूरीवश या तो वह सबके पीछे पीछे दौड़ना शुरू कर देता है या फिर उस रास्ते पर ना चल कर झाड़ झंखाड़ों भरे मैदान पर कदम रखता जाता है| ‘आगे जो होगा, देखा जायेगा’ वाली सोच उसकी मजबूरी बन जाती है|

मैंने भी कवितायेँ लिखीं| लेख लिखे| कहानियां लिखीं| प्रशंसा मिली लेकिन आत्मसंतुष्टि तो व्यंग्य से ही मिली| कई कई बार उपदेश देने से जब कोई ख़ास असर नही दिखाई दिया तो वही उपदेश उलटाकर चटख शब्दों में पेश कर दिया तो व्यंग्य बन गया और निशाने पर लगा| बस फिर क्या था कि साहित्य सृजन की इच्छा ने एक और रास्ता बना लिया| अब तो व्यंग्य लिखना मेरी मजबूरी बन गयी है क्योंकि सीधे सादे शब्द और वाक्य सिर्फ वाह वाही दिला सकते हैं, परन्तु चाशनी में लिपटीं दो धारी तलवारें व्यंग्य के माध्यम से लक्ष्य को अचूक बेध सकती हैं|

जैसे किसी शराबी को सलाह दी जाये की शराब बुरी चीज़ है| इसे नही पीना चाहिए| पर वह पीना नही छोड़ता| उसका स्वास्थ्य बिगड़ता ही जाता है| दूसरी तरफ अगर उससे शराब की, मयखाने की, शराब की मस्ती की बातें हल्के फुल्के ढंग से की जाएँ तो भले ही वह शराब पीना ना छोड़े पर खुशमिजाज़ अवश्य बन जायेगा| पहले पहल जब मुझे किसी पर गुस्सा आता था तो खाली लाल पीली होकर रह जाती थी| परन्तु अब मुझे किसी पर भी गुस्सा नही आता बल्कि अंदर ही अंदर एक नया व्यंग्य तैयार हो रहा होता है और चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान सामने वाले के चिडचिडे हौंसले को पस्त कर देती है|

हमारे यहाँ की राजनीति तो विश्वप्रसिद्ध है| नेताओं से सीधे शब्दों में बात करें तो उनसे बढ़िया नीति निपुण कोई दूसरा दिखाई नही देता| पर उनके पीठ फेरते ही सारा राजनैतिक कौशल हमें मुह चिढा रहा होता है| ऐसे में अपना खून जलाने से अच्छा है उनकी नीति निपुणता को व्यंग्य के पिंजरे में कैद करके लोगों के सामने प्रदर्शित किया जाये ताकि जनता नेताओं और व्यंग्यकारों के शीत-मौन युद्ध का आनंद, नही नही, परमानन्द के झूले में झूल सके|

उषा तनेजा

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